Sunday, February 28, 2010

लग रहीं हैं बोलियाँ, बिक रहे है लोग

वन्दे मातरम , जय हिंद , इन्कलाब जिंदाबाद ,
आज से १०० वर्ष पहले जब इस तरह की बोलियाँ लगती थीं तो
सारा भारतवर्ष अपने आप को गोरवान्वित महसूस करता था, हर कोई इन बोलियों के लिए
अपना सब कुछ अपने देश के लिए न्योछवर करने को तैयार रहता था ! कई क्रांतिकारी इन्ही
बोलियों से जाने जाते थे, रग- रग मैं खून का संचार कर देने बाली थीं ये बोलियाँ
जो सदा अमर रहेंगी..............

पर जैसे -जैसे वक़्त बीतता गया हमने खुद ही बदल दी इनकी परिभाषा
खुद मिटा दिया इन बोलियों को, खुद ही भूल गए इन बोलियों को, और इनका महत्व

आज के अर्थ युग मैं सिर्फ यादरह जाती है, लग रही इंसानों की बोलियाँ
आज जहाँ देखो वहां लगा रहे हैं किसी ना किसी की बोलियाँ
लग रही सत्ता की बोलियाँ, तो बिक रहे नेता, इन्सान खुद लगा रहा अपनों की बोलियाँ
भूँखा लगा रहा खुद की बोली, पेट की आग बुझाने को, लगा रहा गरीब, गरीबी हटाने को
लग रही अबला की बोली कोई बेच रहा अपना इमां, कहीं बिक रहा नारी का सम्मान
कहीं बिक रही नारी सम्मान बचाने को , तो कोई बेच रहा अपने को, सब कुछ पाने को
कोई बेच रहा समाज को तो कोई देश को .......
लग रही है बोलियाँ बिक रहे हैं लोग .................

बंद करो ये बोलियाँ लगाना, हम इन्सान हैं कोई वस्तु नहीं
पर देखें आज वस्तु का तो मूल्य है पर इन्सान, महत्व हीन
लग रही हैं बोलियाँ बिक रहे हैं लोग .........एक छोटी सी कोशिश

जय- हिंद , जय भारत

2 comments:

  1. कोई शक नहीं कि बहुत ही उम्दा तरीके से भावों को जिंदा किया है आपने...
    जय हिंद... जय बुंदेलखंड...

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  2. इस नए चिट्ठे के साथ आपको हिंदी चिट्ठा जगत में आपको देखकर खुशी हुई .. सफलता के लिए बहुत शुभकामनाएं !!

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